Gunjan Kamal

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प्यार जो मिला भी और नहीं भी भाग :- १७

                                                   भाग :- १७


सत्रहवां अध्याय शुरू 👇


इंसान के भीतर कुछ चल रहा हो तो ना तो उसे खाने के लिए सुध रहती है और ना ही वह अपने शरीर को ही आराम  देना चाहता है। नारायण ठाकुर की भी हालत ऐसी ही हो रहे थी, बहुत कुछ उसके भीतर चल रहा था जिसे समझने और समझाने की कोशिश उसकी निरंतर जारी थी।

"है तो मेरा ही खून, मैं मानता हूॅं कि इन्हें ऐसे  शक्स ने अपने कोख से पैदा किया है जिसे मैं पहले दिन से ही पसंद नहीं करता लेकिन इसमें बच्चों की क्या गलती है जो मैं उन्हें सजा दे रहा हूॅं? बच्चे जब बड़े हो रहे हो तो उससे माता के आंचल की नहीं बल्कि पिता के सलाह की जरूरत होती है जिससे कि वें अपने जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा पा सकें लेकिन मैंने अपने दोनों बेटों को आखिरी आज तक  दिया ही क्या है?  माॅं ने  मुझसे अभी कुछ देर पहले बहुत अच्छा सवाल किया है कि तुमने आज तक अपने बेटे को दिया ही क्या है? सही कह रही है माॅं, मैंने दोनों को आखिर दिया ही क्या है? इतना तो मेरी बाप - दादा छोड़कर गए हैं कि यदि मैं कारोबार ना भी करूं तो मेरी दोनों बेटू का वंश उनके छोड़े हुए रुपए -  पैसों और जायदाद से आसानी से चलता रहेगा।" बरामदे में चहलकदमी करते हुए नारायण ठाकुर सोच विचार में मग्न थे तभी उनकी माॅं ने के अचानक से उनके सामने खाने की थाली करते हुए कहा 👇

ऋषभ की दादी :- "तेरी माॅं यदि बूढ़ी हो गई है तो तू भी इतना जवान नहीं रहा कि इतनी देर से चहलकदमी करते रहने के बाद भी तुझे थकान नहीं होगी। पत्नी और बच्चे को प्रताड़ित करने की सोच यदि  तेरी खत्म हो गई हो तो आकर खाना खा ले और हाॅं! जल्दी-जल्दी खाना खाना क्योंकि मेरा पोता सुबह से भूखा है।

नारायण ठाकुर ने एक नजर अपनी माॅं को देखा और फिर टेबल पर माॅं द्वारा रखी गई थाली पर नजर पड़ते ही उनके मन में ख्याल आया 👇

नारायण ठाकुर :- आज तो उसकी माॅं ने अपनी बेटे की पसंद की पूरी सब्जी बनाई है। मैंने भी ध्यान नहीं दिया क्या उसने जाने से पहले खाना खाया है या नही?  मैं दिखाता नहीं हूॅं लेकिन मुझे मेरे बेटे की चिंता है और हमेशा रहेगी।

अपने बेटे को यूं खाने को घूरते हुए देखा तो ऋषभ की दादी  से रहा नहीं गया उन्होंने फिर से अपने बेटे के पास आकर कहा 👇

ऋषभ की दादी :- खाने को यूं ही घूरता  रहेगा या जाकर खाएगा, जितनी देर  करेगा उतनी देर मेरे पोते को होगी। जल्दी से खाना खा और उसे मेरे पास खाना खाने के लिए भेज। हम दोनों ने भी कुछ नहीं खाया है अभी तक।  मैं भी भूखी हूॅं और उसकी माॅं भी।

"मुझे भूख नहीं है, थोड़ी देर में आपका पोता आपके सामने होगा। आप तीनों खाना खा लेना, मेरा इंतजार मत करना।"  कहते हुए नारायण ठाकुर बरामदे से निकल कर  तेज कदमों से अपने राजदूत ( गाड़ी का नाम ) की तरफ बढ़ चले।

"इसे क्या हुआ, मालूम नही अब क्या सोच रहा है? इसकी सोच से तो डर भी लगता है। मेरे पोते को वहां जाकर न जाने क्या-क्या सुनाएगा? अरे! एक बात तो भूल ही गई जब तक यह नहीं खाएगा इसकी जिद्दी और पतिव्रता बीवी अपने  मुॅंह में अन्न का एक दाना तक नहीं डालेगी। मैं बुढ़िया अब किसको - किसको संभालती रहूं, कुछ समझ नही आ रहा है?"  बुदबुदाते हुए ऋषभ की दादी वही बरामदे में लगी चारपाई पर बैठ गई।


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"मेरी बिटिया रानी कहाॅं है आज सुबह से मैंने उसे देखा ही  नहीं?"  कहते हुए मधु के पापा उसके कमरे में आते है।

कमरे में ना तो कोई आवाज ही है और ना ही ऐसा उन्हें कुछ लगता है जिससे कि अपनी बेटी के उस कमरे में होने का आभास उन्हें हो।

"इसकी माॅं तो  स्कूल गई होगी लेकिन मधु कहां गई? कल ही  तो टेलीफोन पर आरती ( मधु की माॅं का नाम )  ने कहा था कि मधु की तबीयत कुछ ज्यादा ठीक नहीं है इसलिए वह कॉलेज नहीं जा रही है फिर वह अपने कमरे में क्यों नहीं है?  मैंने तो आरती को भी नहीं बताया कि  मैंने उसे स्टेशन से फोन किया था और आज घर आ रहा हूॅं।  मैं तो अपने पूरे परिवार को सरप्राइज देना चाहता था और यहां पर आकर तो मैं  खुद ही आश्चर्य में पड़ गया हूॅं।"  अपना सूटकेस मधु के कमरे में रखने के बाद मधु के पिता किशन देव ने मन ही मन में कहा।

जब किशन देव को मधु अपने कमरे में नही मिली तो उसे ये लगा कि मधु काॅलेज चली गई होगी। इसी सोच के साथ जैसे ही वें अपने कमरे के भीतर घुसे उन्हें अपने बिस्तर पर मधु लेटी हुई दिखाई पड़ी। बेटी को इतने दिनों के बाद देखकर खुशी से झूम उठे और दौड़ कर अपनी बेटी के पास पहुॅंचकर जैसे ही उसके ललाट पर अपना हाथ रखा वैसे ही चौंक पड़े।

"हे भोलेनाथ! मेरी बिटिया रानी को तो बहुत तेज बुखार है।" कहते हुए किशन देव ने आलमारी की तरफ दौड़ लगा दी।

आलमारी से थर्मामीटर निकाला और मधु के दाएं बाजू के नीचे रखकर उसे दबा दिया। कुछ देर बाद थर्मामीटर निकाल कर देखा तो एक सौ तीन बुखार था।

किशन देव की जान मधु में बसती थी। बेटी से अत्यधिक लगाव था उन्हें। बड़े बेटे को भी मानते थे लेकिन ज्यादा लाड़ - प्यार तो मधु पर ही लुटाते थे। बेटी को ऐसी हालत में देखकर बैचैन हो उठे। दौड़ कर फ्रिज से बर्फ निकाला और लगे अपनी बिटिया को पट्टी देने। फौज में नर्सिंग असिस्टेंट का कोर्स करना इस वक्त काम आ रहा था। कहते है ना कि कोई भी प्राप्त किया हुआ ज्ञान जाया नहीं जाता। वहीं पर सीखा था कि जब बुखार से शरीर बहुत अधिक तप रहा हो तो दवा भी असर नही करती, उस वक्त ठंडे पानी से की गई पट्टी रामबाण का काम करती है और कुछ घंटे बाद ही  बुखार नीचे आ जाता है।

बर्फ से दी गई पट्टी का असर किशन देव को कुछ देर बाद ही दिखने लगा। मधु ने अपनी ऑंखें खोली जिसे देखते ही पिता की ऑंखो से ऑंसूओं की धार बह निकली। मधु ने आश्चर्य से अपने पिता को देखा और इशारे से ये पूछा कि "आप कब आए?"

एक पिता ने स्नेह से अपनी उस बेटी को देखा जिसे साक्षात देखने की इच्छा उससे दूर रहने पर बढ़ जाती है। अपने पिता की जान है मधु। घर में सबसे छोटी होने के कारण ज्यादा लाड - प्यार उसी को मिलता आया है और अभी भी मिल रहा है। वैसे तो मधु को उसका बड़ा भाई भी बहुत मानता है लेकिन बच्चों में यह भावना तो आ ही जाती है कि माॅं -  पापा मुझसे अधिक उससे प्यार करते है। मधु के बड़े भाई का उससे तात्पर्य हमेशा ही  मधु से रहता था।  उसके मन में भी ये भावना रहती थी कि माॅं - पापा बेटा होने के बावजूद भी मुझे नहीं बल्कि उसकी छोटी बहन को ज्यादा प्यार करते है।

मधु और उसके पिता एक - दूसरे से बात कर ही रहे होते हैं कि तभी वहां पर एक ऐसा शख्स आता है जिसे देखकर मधु के पिता के चेहरे के हाव-भाव बदलने लगते है। आखिर कौन आया है उस कमरे में? ये और इससे जुड़ी और भी बातें जानने के लिए जुड़े रहे इसके अगले अध्याय से।


क्रमशः


गुॅंजन कमल 💓💞💗


# उपन्यास लेखन प्रतियोगिता 


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12 Comments

Mithi . S

24-Sep-2022 06:00 AM

Bahut khub

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shweta soni

23-Sep-2022 08:37 AM

Nice post

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Pallavi

22-Sep-2022 09:17 PM

Nice post 👍

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